चुनावदेश

RSS को क्यों हुई समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता पर आपत्ति, क्या वाकई संविधान से हटने चाहिए ये शब्द?

यह मांग ऐसे समय पर आई है जब Bihar Assembly Election 2025 नज़दीक हैं

 

नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के वरिष्ठ नेता दत्तात्रेय होसबोले (Dattatreya Hosabale) द्वारा संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवाद’ और ‘पंथनिरपेक्षता’ (धर्मनिरपेक्षता) शब्दों को हटाने की मांग ने देश की राजनीति और बौद्धिक जगत में नई बहस छेड़ दी है। होसबोले ने हाल ही में कहा कि ये शब्द संविधान के मूल स्वरूप का हिस्सा नहीं थे और इन्हें 1976 में आपातकाल के दौरान जोड़ दिया गया था, इसलिए इन्हें अब हटाना चाहिए।

यह मांग ऐसे समय पर आई है जब बिहार विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Election 2025) नज़दीक हैं और हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को संविधान संशोधन जैसे मुद्दों पर आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। ऐसे में भाजपा इस मुद्दे पर खुलकर न बोलते हुए भी आरएसएस की विचारधारा से अलग नहीं दिखना चाहती।

संविधान में कब जोड़े गए ये शब्द?

भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’, ‘पंथनिरपेक्ष’ और ‘अखंडता’ शब्द 42वें संविधान संशोधन (1976) के तहत जोड़े गए थे। इससे पहले संविधान में इनका उल्लेख नहीं था। बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर ने संविधान सभा की बहसों में समाजवाद को स्थायी विचारधारा के रूप में शामिल करने का विरोध किया था। उनका मानना था कि समाजवाद या पंथनिरपेक्षता जैसी अवधारणाएं समय और परिस्थिति के अनुसार तय होनी चाहिए, न कि संविधान में स्थायी रूप से दर्ज की जाएं।

आरएसएस का तर्क क्या है?

आरएसएस (RSS) का मानना है कि ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ पश्चिमी विचारधाराएं हैं, जो भारत की हिंदू सांस्कृतिक पहचान से मेल नहीं खातीं। संविधान में इन्हें जबरन जोड़ा गया और इससे भारत की आत्मा को ठेस पहुंची।
भारत हमेशा से सर्वधर्म समभाव की भावना को अपनाता रहा है, इसलिए अलग से ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द की कोई ज़रूरत नहीं।

भाजपा नेताओं की प्रतिक्रिया

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि ये शब्द भारत की आत्मा पर कुठाराघात हैं।

शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि भारत पहले से ही एक ऐसा राष्ट्र है, जहां हर धर्म को समान रूप से सम्मान मिला है।

विपक्षी दलों ने आरएसएस की इस मांग को संविधान की आत्मा के खिलाफ बताया है। उनका कहना है कि यह लोकतंत्र और बहुलतावाद पर सीधा हमला है और इसका मकसद एक धर्म विशेष को प्राथमिकता देना है।

सुप्रीम कोर्ट का नजरिया

इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं डाली जा चुकी हैं, लेकिन कोर्ट ने अब तक इन्हें यह कहकर खारिज किया है कि संविधान की प्रस्तावना के इन शब्दों पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है।

राजनीतिक रणनीति या वैचारिक विमर्श?

विशेषज्ञों का मानना है कि आरएसएस जानता है कि इन शब्दों को वास्तव में हटाना फिलहाल संभव नहीं है, लेकिन वह सार्वजनिक विमर्श को इस दिशा में ले जाना चाहता है, ताकि वह समझ सके कि समाज में इस तरह के संविधान संशोधन को लेकर कितना समर्थन या विरोध मौजूद है।

संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ जैसे शब्दों को हटाने की मांग कोई नया मुद्दा नहीं है, लेकिन आरएसएस के इस ताज़ा बयान ने इसे फिर से केंद्र में ला दिया है। यह बहस केवल कानूनी या तकनीकी नहीं, बल्कि भारत के विचार और पहचान से जुड़ा सवाल बन चुकी है।

क्या यह बहस देश को आगे ले जाएगी या सामाजिक ध्रुवीकरण को और बढ़ाएगी — यह आने वाले चुनावों और सामाजिक प्रतिक्रियाओं पर निर्भर करेगा।

Related Articles

Back to top button