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डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी न होते, तो आज बंगाल भारत का हिस्सा न होता

1943 के बंगाल अकाल में जब प्रशासन असफल था, तब उन्होंने खुद सेवा और राहत कार्यों का नेतृत्व किया।

 

नई दिल्ली। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी (Dr. Shyama Prasad Mukherjee) का जीवन देशभक्ति, राष्ट्रवाद और अडिग संकल्प का प्रतीक रहा है। उनका जन्म 6 जुलाई 1901 को कलकत्ता (अब कोलकाता) में महान शिक्षाविद् सर आशुतोष मुखर्जी और जोगमाया देवी के घर हुआ था। अपने सात भाई-बहनों में दूसरे स्थान पर रहे श्यामा प्रसाद बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और तेजस्वी प्रतिभा के धनी थे।

शिक्षा में क्रांति के अगुआ

उच्च शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे कम उम्र के कुलपति के रूप में दो बार सेवा दी। उन्होंने अंग्रेजों के दासत्व के प्रतीकों को हटाकर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोहों में भारतीय भाषाओं को प्रमुखता दी। वर्ष 1937 में उन्होंने रवींद्रनाथ ठाकुर को दीक्षांत समारोह में बुलाकर बांग्ला में भाषण देने की परंपरा शुरू करवाई।

बंगाल को पाकिस्तान में जाने से रोका

1947 में विभाजन के समय, जब मुस्लिम लीग और तत्कालीन मुख्यमंत्री सुहरावर्दी संयुक्त बंगाल को पाकिस्तान में शामिल करने की साजिश कर रहे थे, तब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इसका डटकर विरोध किया। उन्होंने ऐलान किया:
“न हम पाकिस्तान में रहेंगे, न संयुक्त बंगाल में, हम भारत के ही साथ रहेंगे।”
उनके आंदोलन और राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते बंगाल का विभाजन हुआ और पश्चिम बंगाल भारत में शामिल हो सका। यह ऐतिहासिक उपलब्धि उनकी दूरदृष्टि और अडिग राष्ट्रवाद का परिणाम थी।

नेहरू से मतभेद और इस्तीफा

नेहरू सरकार में उद्योग मंत्री रहते हुए उन्होंने 1948 में भारतीय उद्योग नीति का निर्माण किया, जिसमें आत्मनिर्भर भारत की नींव रखी गई। उन्होंने चित्तरंजन लोकोमोटिव, भिलाई स्टील प्लांट, सिंदरी फर्टिलाइज़र जैसे प्रमुख औद्योगिक संस्थानों की स्थापना की।

हालाँकि, पाकिस्तान में हिंदुओं पर अत्याचार और भारत में शरणार्थी हिंदुओं की उपेक्षा से आहत होकर उन्होंने नेहरू-लियाकत समझौते का विरोध किया और मंत्रिपद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद वे कलकत्ता लौटकर शरणार्थियों की सेवा में जुट गए।

जनसंघ की स्थापना और लोकतंत्र की रक्षा

भारत की स्वतंत्रता के बाद उन्होंने भारतीय जनसंघ की स्थापना कर कांग्रेस के राष्ट्रवादी विकल्प का निर्माण किया। जब नेहरू ने कहा,
“I will crush the Jan Sangh.”
तो डॉ. मुखर्जी ने स्पष्ट जवाब दिया:
“I will crush this crushing mentality.”
यह उनका लोकतंत्र में अटूट विश्वास और साहस का प्रतीक था।

धारा 370 के खिलाफ संघर्ष और बलिदान

डॉ. मुखर्जी (Dr. Shyama Prasad Mukherjee) ने “एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे” का नारा दिया। वे धारा 370 के प्रबल विरोधी थे। इसी मुद्दे पर संघर्ष करते हुए 23 जून 1953 को रहस्यमयी परिस्थितियों में जम्मू-कश्मीर में उनका बलिदान हुआ।

बौद्ध धर्म और सेवा भावना

वे केवल राजनेता नहीं, एक संवेदनशील समाजसेवी भी थे। 1943 के बंगाल अकाल में जब प्रशासन असफल था, तब उन्होंने खुद सेवा और राहत कार्यों का नेतृत्व किया। 1952 में सांची में बौद्ध अवशेषों की स्थापना और बर्मा, वियतनाम, थाईलैंड की यात्राएं बौद्ध धर्म के प्रति उनकी श्रद्धा को दर्शाती हैं।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी (Dr. Shyama Prasad Mukherjee) ने केवल बंगाल को ही भारत में बनाए रखने में निर्णायक भूमिका नहीं निभाई, बल्कि उन्होंने औद्योगिक विकास, राष्ट्रीय एकता और लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपने जीवन का प्रत्येक क्षण समर्पित कर दिया।

 

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