परिवार को टूटने-बिखरने से बचाना ही होगा

नई दिल्ली। “तलाक” — यह एक ऐसा शब्द है, जो न केवल दो व्यक्तियों को, बल्कि एक पूरे परिवार और सामाजिक ढांचे को हिला कर रख देता है। इसके दर्द को वही भली-भांति समझ सकता है जिसने इसे जिया हो। आज तलाक केवल एक वैवाहिक संबंध-विच्छेद नहीं, बल्कि समाज के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है।
वैवाहिक जीवन की राह कभी सीधी-सपाट नहीं होती। जीवन के रास्ते ऊबड़-खाबड़ होते हैं, जिन्हें पार करने में अधिकांश दंपति सफल हो जाते हैं। लेकिन कुछ जो पीछे छूट जाते हैं, वे न केवल अपने जीवन को नर्क बना लेते हैं, बल्कि परिवार और समाज भी इस टूटन का शिकार हो जाता है।
तलाक के मूल कारण
अनुसंधानों और सामाजिक अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ है कि तलाक के पीछे कई कारण होते हैं —
- प्रतिबद्धता की कमी
- बेवफाई और विश्वासघात
- निरंतर झगड़े और बहस
- शारीरिक और भावनात्मक अंतरंगता की कमी
- आर्थिक तनाव
- नशे की लत
- मानसिक और शारीरिक शोषण
- संचार और आपसी समझ की कमी
हर तलाक की एक अलग कहानी होती है, पर इसके परिणाम लगभग समान होते हैं — टूटे परिवार, पीड़ित बच्चे, और एक सामाजिक कलंक।
समाज और कानून की भूमिका
अक्सर ऐसे मामले पहले पुलिस, फिर अदालत की चौखट तक पहुंचते हैं। सामाजिक संस्थाएं और स्वयंसेवी संगठन समाधान का प्रयास करते हैं, लेकिन जब सभी उपाय विफल हो जाते हैं, तब न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी — “बदले की जिंदगी मत जिएं, सौहार्दपूर्ण समाधान खोजें” — अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह न केवल कानूनी सलाह है, बल्कि जीवन की दिशा बदलने वाली सीख है।
पुरुष बनाम महिला — कौन जिम्मेदार?
कभी पुरुष अपने “पुरुष प्रधान” अधिकारों के नाम पर अत्याचारी हो जाते हैं, तो कभी महिलाएं कानूनी विकल्पों का अनुचित लाभ उठाती हैं। ऐसी स्थिति में बाहरी हस्तक्षेप अक्सर आग में घी का काम करता है। असली प्रश्न यह है कि ऐसे विवादों का हल कैसे निकले?
यह समस्या किसी एक वर्ग, समुदाय या आर्थिक स्थिति से जुड़ी नहीं। आज यह समस्या शिक्षित, आधुनिक और सम्पन्न परिवारों में भी उतनी ही गंभीर है जितनी पिछड़े क्षेत्रों में।
तलाक और घटती जनसंख्या
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च के मुताबिक, पारिवारिक विघटन और विवाह विच्छेद वैश्विक जनसंख्या पर भी असर डाल रहे हैं। भारत में भी जन्म दर घट रही है, और संयुक्त परिवारों का विघटन इसका एक बड़ा कारण है। आज जब तलाक होता है, तो सबसे अधिक प्रभावित उस परिवार का बच्चा होता है — जिसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी स्पष्ट नहीं रहती।
क्या समाधान संभव है?
- इस गंभीर सामाजिक चुनौती से निपटने के लिए जरूरी है:
- पूर्वविवाह परामर्श (pre-marital counselling)
- विवाहोत्तर संवाद और समझदारी
- सामाजिक संस्थाओं की सक्रिय भूमिका
- कानूनी प्रक्रिया में शीघ्रता और सहानुभूति
मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना
समाज को यह स्वीकार करना होगा कि हर विवाह में कठिनाइयाँ आती हैं, लेकिन उनका हल तलाक नहीं होता। बातचीत, समझ, और एक-दूसरे के प्रति सम्मान से कई रिश्ते टूटने से बच सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट की सलाह सिर्फ एक दंपति के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए है — कि वह बदले की नहीं, समझदारी और क्षमा की राह पर चले।
अगर परिवार बचे रहेंगे, तो समाज बचेगा। अगर समाज बचेगा, तो देश बचेगा। अब वक्त आ गया है कि हम सभी — समाज, कानून, परिवार और व्यक्ति — मिलकर इस दिशा में गंभीर प्रयास करें। तलाक को अंतिम विकल्प बनाएं, पहला नहीं।