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इंसान और बाघ के बीच टकराव को कैसे रोका जा सकता है?

भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) द्वारा हाल ही में जारी एक संयुक्त रिपोर्ट में चेतावनी दी गई

नई दिल्ली। भारत को यह गौरव प्राप्त है कि उसके जंगलों में दुनिया की सबसे बड़ी जंगली बाघों की आबादी रहती है—3,600 से अधिक बाघ, जो वैश्विक आबादी का लगभग 70% हैं। यह उपलब्धि दशकों से चल रहे संरक्षण प्रयासों और नीतिगत दृढ़ता का प्रमाण है। लेकिन इस चमकदार आँकड़े के पीछे एक खामोश और गंभीर संकट गहराता जा रहा है—बाघों के शिकार प्रजातियों की गिरती संख्या।

भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) द्वारा हाल ही में जारी एक संयुक्त रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा के प्रमुख बाघ आवासों में चीतल, सांभर और जंगली भैंसे जैसे शाकाहारी प्रजातियों की संख्या तेजी से घट रही है। यह गिरावट न केवल बाघों के लिए बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए गंभीर खतरे का संकेत है।

भारत में बाघों की बढ़ती संख्या और उनके निवास स्थानों के सीमित होते दायरे के चलते इंसान और बाघ के बीच टकराव की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। लेकिन एक नई रिपोर्ट में इस संघर्ष को कम करने के लिए एक व्यवहारिक समाधान प्रस्तुत किया गया है।

रिपोर्ट के अनुसार, बाघों के लिए भोजन के मुख्य स्रोत – चीतल और सांभर – की संख्या बढ़ाने के लिए सुरक्षित बाड़ों में इन प्रजातियों का प्रजनन किया जाना चाहिए। विशेषज्ञों का मानना है कि इन बाड़बंद क्षेत्रों में इन जानवरों को शिकार और शिकारियों दोनों से बचाकर पाला जाए और जब इनकी संख्या पर्याप्त हो जाए, तो इन्हें जंगलों में फिर से बसाया जाए, जिससे बाघों को जंगलों में पर्याप्त प्राकृतिक शिकार उपलब्ध हो सके।

बाघ संरक्षण विशेषज्ञ बैजूराज कहते हैं, “अगर हम स्थानीय लोगों को इस प्रक्रिया में शामिल करना चाहते हैं, तो सबसे पहले उन्हें वैकल्पिक आजीविका देनी होगी। तभी वे जंगली जानवरों के प्रति सहानुभूति रख पाएंगे। जब हितधारकों की चिंता की जाएगी, तभी वे जंगल और उसकी जैव विविधता की चिंता करेंगे।”

भारत में इस समय 3,600 से अधिक बाघ हैं, जो दुनिया की बाघ आबादी का लगभग 70% है। इन बाघों की जीवनशैली मुख्य रूप से चीतल, सांभर, जंगली भैंसे, नीलगाय, जंगली सूअर और हॉग डियर जैसे शिकार पर निर्भर है। बाघों के अलावा तेंदुआ, लकड़बग्घा और सियार जैसे अन्य शिकारी भी इन्हीं प्रजातियों पर निर्भर हैं।

बाघों की आबादी में जो सुधार हुआ है, वह संरक्षण प्रयासों और उनके आवास की सुरक्षा की बदौलत संभव हुआ है। भारत हर चार साल में बाघों के निवास स्थानों का सर्वेक्षण करता है, जिसमें उनकी संख्या, शिकार की उपलब्धता और जीवन के लिए उपयुक्त स्थानों की जानकारी इकट्ठा की जाती है।

हालांकि यह देखा गया है कि बाघ अब केवल टाइगर रिजर्व और नेशनल पार्कों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे ऐसे इलाकों में भी रहने लगे हैं जहां लगभग 6 करोड़ लोग खेती करते हैं या बसते हैं। इससे इंसान और बाघ के आमने-सामने आने की घटनाएं बढ़ी हैं।

हालांकि यह संख्या भारत में अन्य कारणों से होने वाली मौतों की तुलना में बहुत कम है, फिर भी यह चिंता का विषय है। विशेषज्ञ मानते हैं कि बाघों को पर्याप्त शिकार की व्यवस्था कर, उनके निवास स्थानों की सीमा का सम्मान कर, और स्थानीय समुदायों को संरक्षण की प्रक्रिया में शामिल कर इंसान-बाघ संघर्ष को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

बाघों की संख्या में वृद्धि एक सफलता है, लेकिन यह नई चुनौतियां भी लेकर आई है। अब समय आ गया है कि हम न केवल बाघों को बचाएं, बल्कि उनके और इंसानों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए दीर्घकालिक समाधान भी लागू करें। चीतल-सांभर प्रजनन जैसी पहल और ग्रामीण आजीविका का सशक्तिकरण इसी दिशा में एक मजबूत कदम हो सकता है।

बाघों की प्रकृति शिकारी है। वे शिकार पर निर्भर रहते हैं और यदि शिकार नहीं होगा, तो बाघों की उपस्थिति भी टिकाऊ नहीं रह सकती। यह पारिस्थितिकी का सीधा और स्थायी सिद्धांत है। जब जंगलों में शिकार प्रजातियां घटती हैं, तो बाघों को मानव बस्तियों की ओर खिंचना पड़ता है, जिससे इंसान और बाघ के बीच संघर्ष की घटनाएं बढ़ती हैं। हर साल औसतन 50 से अधिक लोग बाघों के हमलों में जान गंवाते हैं, और ये घटनाएं प्रायः उन्हीं इलाकों से आती हैं जहां जंगलों की स्थिति खराब और शिकार की उपलब्धता कम है।

भारत के लिए यह एक निर्णायक मोड़ है। यदि हम चाहते हैं कि बाघों की यह बढ़ती आबादी स्थायी रूप से बनी रहे, तो हमें उनके भोजन की शृंखला को भी स्थिर करना होगा। जंगल के राजा के लिए सिर्फ ताज पहनाना काफी नहीं, उसे जीवित रखने के लिए संपूर्ण साम्राज्य की देखभाल जरूरी है। आज जब भारत वैश्विक मंच पर पर्यावरण संरक्षण की बात करता है, तो उसे अपने जंगलों की इस गूंगी पुकार को भी सुनना होगा। बाघों का संरक्षण अब एकतरफा नहीं, समग्र दृष्टिकोण की मांग करता है।

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